Blog :- पूर्व मुख्यमंत्री, आज देश का कृषि मंत्री है, फिर भी किसान की समस्या क्यों नहीं समझते?


नौकरी के दिनों में जब अपनी सीट पर पहुंचता.. 

अक्सर अखबार की कोई कटिंग रखी होती। कलेक्टर की सिग्नेचर्ड नोटिंग होती- "वन विभाग- जांच कर सात दिवस में प्रतिवेदन दें" 

विभाग में हड़कम्प मच जाता। 
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हिन्दू अखबार में जिगीश की एक शानदार स्टोरी है। मध्यप्रदेश के एक सोयाबीन किसान से शुरू होती है।

कुछ बरस पहले उसे 5000रु क्विंटल मिलते थे। अब मंडी में 3500 बमुश्किल मिलते हैं। यह MSP से कम है। तिस पर उत्पादन प्रति एकड़ 25 से 30% घटा है। लागत नही निकल रही। लाखो हेक्टेयर और सैकड़ों गाँवो में यह हालत है। 
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पड़ताल बताती है कि उत्पादन घटा क्योकि प्रामाणिक बीज न मिले। अच्छा बीज, लैब से किसान को मिलना चाहिए, वह बाजार के भरोसे है।

मंडी का आढ़तिया बताता है कि विदेशी सोया बड़ा सस्ता है। कम्पीट करना है, तो मूल्य कम रखना होगा,किसान को भी कम मिलेगा। 

किसी एक्सपर्ट के हवाले से मालूम होता है, कि इम्पोर्ट करना सरकार के लिये जरूरी है, क्योकि देश में दलहन तिलहन की कमी है। 

विदेशी सोया किसानों को हैवी सब्सिडी है, वे सस्ता बेच लेते हैं। हमारे किसान को वह सुविधा नही। कुछ WTO का मसला है।

भावांतर (प्राइज गैप) योजना की पड़ताल भी है। किसान लाख रुपये का नुकसान झेलता है, सरकार ढाई हजार देकर पोस्टर छपवाती है। 
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सोया फीड उद्योग का मालिक भी भयभीत हैं। माल की आवक, हर साल घट रही है। किसान अगर सोया न उगाए तो उनकी यूनिट बन्द हो जाएगी। 

छोटे, मझोले उद्योग हैं। 10-20 करोड़ के कर्ज से हुआ इन्वेस्टमेंट, भंगार हो जाएगा। कमोडिटी मार्केट एक्सपर्ट अलग भयभीत है। ये सारे किसान सोया से निराश होकर, जो भी फसल लगाएंगे, अति उत्पादन से उसके दाम गिर जाएंगे। 

ये स्टोरी सोया की खेती के इतिहास, ICAR के वैज्ञानिकों और इंडस्ट्री स्पेशलिस्टों के पास भी जाती है। सबकी अपनी सलाह है। 
★★★★★★★
अब सोचिये, कि प्रधानमंत्री जब नहा धोकर दफ्तर पहुचे, टेबल पर यह रिपोर्ट रखी हो। पीए ने पहले ही "कृषि विभाग, उचित कार्यवाही कर 15 दिवस में प्रतिवेदन देवें" लिख रखा है। 

अगले दिन, कृषि विभाग में PMO से आई, सिग्नेचर्ड न्यूज कटिंग से हड़कंप मच जाता है। ठीक वैसे, जैसे कलेक्टर ऑफिस से आई कटिंग के बाद हमारे ऑफिस में हड़कंप होता था। 
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और इसलिए पत्रकारों की सरकारी हलकों में इसलिए कद्र होती थी। "ऊपर से नोटिस होगा" के भय में सचिव से लेकर पटवारी तक, अखबारों/ पत्रकारों को, को गम्भीरता से लेते थे। 

अब पत्रकारों और श्वानों की गति एक है। उन्हें लिफाफे मिलते हैं। विज्ञापन मिलते हैं- ये सब नही लिखने को। 

लोकल अफसर ही नही, CMO, PMO, DAVP, PRD बकायदा अरबों का बजट प्रावधान, इंस्टीटूयूशनली रिश्वत बांटते हैं।क्योकि अखबार में छपना सरकार की छवि खराब करता है।जनमत और वोट प्रभावित होते है। 
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तो कभी छप कर बिकने वाले अखबार, आजकल बिक कर छपते हैं। न्यूज का स्पेस कम, और विज्ञापन इतने ज्यादा होते है, कि ऊपर एक्स्ट्रा "जैकेट" नुमा एक्स्ट्रा पेज लगाना पड़ता है। 

मुखपृष्ठ पर बैनर हेडलाइन नही, महामानव का चेहरा चमकता है। इस तरह, ऊपर से नीचे तक सरकारी महकमे, किसी भी समस्या, उससे फैल रहे असन्तोष, और उससे किसी भावी आर्थिक- समाजिक तबाही को भांप पाने, उसे प्री-एम्प्ट करने में असफल रहते है। 
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जो मामूली चीज, किसी खबर से शुरू हो, एक आदेश या पॉलिसी परिवर्तन पर समाप्त हो जाती, वह असन्तोष, लोकापवाद, धरना, प्रदर्शन, लाठी, गोली, दमन तक जाती है। 

तभी औचक ही ऑपरेशन सिन्दूर, घुसपैठिये, आतंकवाद की घटना घटती है। ध्यान बंट जाता है। उधर प्रदर्शनकारी नकली किसान, नकली छात्र, गद्दार, वामी, कांगी, मुल्ले, पाकिस्तानी करार दिए जाते हैं। 
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समस्याएं अपने शुरुआती दौर में ही दिख जाना तो छोड़िए, उसके फट पड़ने पर हुए धरने प्रदर्शन तक की खबरें नही आती।

लोग जब लोकतान्त्रिक तरीके बेअसर पाएंगे, तो देर सवेर गैर वाजिब तरीके अपनाएंगे। तो जो लोग इस मीडिया मैनेजमेंट को कुशल प्रबन्धन का नमूना, बेहतरीन राजनीतिक चाणक्यगिरी समझते है, वे मूर्ख है। 

अपनी कुर्सी के नीचे ऐसा बहुमुखी ज्वालामुखी खोद रहे है, जो कब किस भयावहता से फटेगा, किसी की नही पता। 
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जब पत्रकार, अखबार, टीवी अपनी महत्ता खत्म कर चुके हैं।
उन्हें मेरा सलाम। 

इस स्टोरी की शुरुआत में जो किसान है, वह स्थानीय भाजपा का पदाधिकारी है। उसके प्रदेश,और पार्टी का पूर्व मुख्यमंत्री, आज देश का कृषि मंत्री है। 

स्वप्न देखता हूँ कि, उनकी टेबल से इस खबर की कटिंग प्रदेश के मुख्यमंत्री तक पहुँची, और सोयाबीन किसानों का मामला चटपट हल हो गया। 
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पर नींद अधबीच में टूट जाती है। स्वप्न भंग होता है। और देखता हूँ कि सरकार खुद ऊँघ रही है।
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