| PHOTO CREDIT :- GOOGLE |
जैसे ही गांधी जी की हत्या की खबर पंडित नेहरू को मिली..
वे दौड़े हुए आए।
और गांधी की बाँह पकड़, सिसकने और और काँपने लगे। मानो कोई अनाथ बेटा, पिता की लाश से लिपटकर चीत्कार कर रहा हो!
वहीं मौजूद सरदार पटेल का चेहरा, घोर विषाद में डूबा था। आँसू तो उन्होंने जब्त कर लिये, मगर भीतर से उनकी छाती हमेशा के लिए टूट गई।
●●
माउंटबेटन ने आते ही पहला काम यह किया कि जवाहर और पटेल को खींचकर वे पास के कमरे में ले गए।
कहा- गांधी जी से पिछली बार जब मेरी मुलाकात हुई, उन्होंने मुझसे कहा था-
"मेरी सबसे बड़ी इच्छा यह है कि सरदार और जवाहरलाल मिलकर परस्पर एक हो जाएँ"
●●
सरदार पटेल 1917 में कांग्रेस में शामिल हुए थे। नेहरू ने 1912 में ही कांग्रेस के डेलीगेट बनकर आये थे, लेकिन सक्रिय आधिकारिक रूप से पिता की अनुमति के बाद 1919 में कांग्रेस से जुड़े।
नेहरू उत्तरप्रदेश और सरदार गुजरात से आगे बढ़े। 30 के दशक के अंत तक दोनों दिल्ली में मिले, कांग्रेस के राष्ट्रीय विस्तार को सम्हालने लगे।
नेहरू स्वप्नजीवी थे, लिबरल, सोशलिस्ट सोच और विश्वदृष्टि के धनी। सरदार ठेठ, प्रेक्टिकल, काफी हद तक यथास्थितिवादी थे। जरूरत के मुताबिक कठोर निर्णय करते। उनकी सोच कुछ हद तक पूंजीवादी थी। रजवाड़ों से उनके सम्बन्ध बेहतरीन थे।
स्वभावांतर के कारण विषयो में मतांतर होना स्वाभाविक था। मगर शायद सुभाष बोस से जुड़ा घटनाक्रम, एक बड़ी गांठ बनी।
●●
अध्यक्ष के रूप में सुभाष, नेहरू का चयन थे। दोनों मित्र थे, समाजवादी सोच के थे, वैश्विक नजरिया रखते थे।
स्वयं दो बार अध्यक्ष रहने के बाद, अगले अध्यक्ष के रूप में जब, नेहरू ने सुभाष को प्रस्तावित किया, उस वक्त सुभाष तो कई बरसों से भारत मे थे ही नही।
अध्यक्ष मनोनीत होने की सूचना पर ही वे यूरोप से लौटे, कार्यभार सम्हाला। और सुभाष से सरदार की, निजी अदावत थी।
यह मामला, सरदार के बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल (जिनकी मौत यूरोप में हुई, और अंत समय सुभाष ने सेवा की थी) की प्रॉपर्टी, सुभाष द्वारा अपनी संस्था को दान करवा लेने का मसला था।
सरदार पटेल ने वसीयत को कोर्ट में जाकर खारिज करवाया था। यह एक बदसूरत, बुरी लड़ाई थी। अब वही शख्स कांग्रेस अध्यक्ष था।
सरदार को उन्हें सहयोग करना था।
●●
एक ही साल में में सुभाष के तानाशाही रवैये, और एकपक्षीय फ़ैसले लेने की शैली ने कांग्रेस में भारी असन्तोष पैदा किया। इस अंसतोष के मुखिया सरदार पटेल थे।
तो अगले बरस, उन्हें अध्यक्ष पद पर रिपीट किये जाने पर सरदार पटेल सहित कई नेताओं ने आपत्ति की। सर्वानुमति न होने पर भी सुभाष अड़े हुए थे। वे मामले को ओपन इलेक्शन तक ले गए।
जीतकर दोबारा अध्यक्ष भी बन गए।
लेकिन अब रार ठन गयी थी। आधे कार्यकाल तक वे कार्यसमिति की बैठक न बुला सके। उनकी चयनित 20 सदस्यों की कार्यसमिति से 17 ने इस्तीफा दे दिया था। बचे 3 में एक खुद सुभाष थे, दूसरा उनके भाई शरत चन्द्र।
और तीसरे नेहरू।
●●
उस धर्मसंकट के दौर में अगर सुभाष चंद्र बोस के साथ कोई बड़ा नेता खड़ा था- तो वे थे अकेले नेहरू
गतिरोध बढ़ा, तो अंततः गांधी ने भी सरदार का ही पक्ष सही माना। नेहरू भी गांधी के फैसले के आगे सर झुका गए। सुभाष को इस्तीफा देना पड़ा।
●●
आगे भी नेहरू और पटेल ने, बरसों साथ काम किया। लेकिन अपने अपने मत से पीछे नही हटते थे।
तब में गांधी ही अंतिम मार्ग निकालते। जो आदेश होता, दोनों चुपचाप पालन करते।
आज वह रौशनी की मीनार गिर चुकी थी। उन्हें राह दिखाने वाला, लाश बनकर बगल के कमरे में पड़ा था।
●●
माउंटबेटन ने जवाहर और सरदार से कहा- अपने गुरु की मृत देह पर शपथ लो कि तुम दोनों एक रहोगे?
जवाहर और सरदार ने एक क्षण एक–दूसरे को कातरता से देखा। अब तक जिस वृक्ष की छाया में दोनों जी रहे थे, वह कटकर गिरा हुआ था। अब तो वे दोनो ही एक दूजे के सर का साया थे।
सरदार का धैर्य टूट गया। उस दिन, शव के पास सरदार और जवाहरलाल, एक दूसरे को बाहों भरकर, जार जार रोये।
मन का सारा मवाद बह गया।
●●
वह निर्मल धारा पटेल के दिल मे अंत तक बहती रही। आखरी बार जब वे दिल्ली से मुंबई के लिए रवाना हुए, स्वास्थ्य बेहद खराब था।अपनी मृत्यु के पूर्वाभास में उन्होंने पुत्री मणिबेन और वीपी मेनन से कहा-
"मेरे बाद जवाहर अकेला पड़ जायेगा। उसका साथ मत छोड़ना"
कुछ दिन बाद सरदार की मौत पर, भावुक नेहरू बोले -मेरा दाहिना हाथ कट गया।
●●
पटेल के प्रति नेहरू के प्रेम, और श्रद्धा का आलम यह था, कि फरवरी 1949 में सरदार पटेल के जीवन काल में ही, उनकी पहली प्रतिमा का अनावरण, अपने हाथों से किया था।
तस्वीर उसी मौके की है,
और शहर है गोधरा।
जो आज किसी और कारण से, इतिहास में बदनाम है।
🙏