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एक फैसला, जो 140 करोड़ लोगों के 6 साल खा गया
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9 साल पहले, शाम 8 बजे प्रधानमंत्री टीवी पर आए।
एक अजीब घोषणा की।
भारत की मुद्रा के बड़े हिस्से को उन्होंने रद्दी बना दिया। यह किसकी सलाह थी, किसकी योजना थी, किसने उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया..
या यह उनकी स्वयं की बुद्धि से उपजा वितंडा था, हम कभी नही जान पायेगे। लेकिन 9 साल बाद उसके गहरे घाव हमारी जिंदगियों से अब भी रिस रहे हैं।
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ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्टिविटी, याने जीडीपी उन सभी वस्तुओं और सेवाओं का मापक है, जो भारत देश के नागरिक मिलकर पैदा करते हैं। इसका बढ़ना विकास का द्योतक है।
साल 2016 में भारत की अर्थव्यवस्था गतिमान थी। लिबरलाइजेशन के बाद से उंसकी गति कभी थमी नही थी। यदि 2014 से 16 का ही ट्रेंड माने, तो इन दो दिन सालो में मामूली गिरावट अवश्य थी, लेकिन 2016-17 की पहली दो तिमाहियों में ग्रोथ 7.9 और 7.5 फीसदी थी।
ये अच्छा आंकड़ा था। लेकिन नोटबन्दी के बाद तीसरी तिमाही में 6.1% चौथी में 6.0% रह गयी। कुल मिलाकर पिछले वित्त वर्ष के 8.2% से घटकर वह 7. फीसदी रह गई।
ये 1.1 फीसदी का पहला झटका था। अगले वर्षों में गति और धीमी हुई- याने 6.8, फिर 6.5। अगर पुरानी रफ्तार बनी रहती, तो 2016 से 2019 तक औसत 8.1 फीसदी ग्रोथ संभव थी।
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वास्तविक औसत रहा 6.8 फीसदी।
अंतर आया, 1.3 फीसदी प्रति वर्ष, अगले साल में कुल 3.9 फीसदी। अब इसे पैसे में बदलकर देखिए।
2016 में कुल GDP था 153 लाख करोड़ रुपये। 1 फीसदी ग्रोथ हानि का मतलब 1.53 लाख करोड़। तीन साल में 3.9 फीसदी हानि यानी करीब 6 लाख करोड़ का नुकसान।
यह नुकसान, सरकार को नही,
हमारे अपने बिजनेस और घरों का था।
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पर यह एक पहलू है।
ग्रोथ कम होने से अगले साल का बेस भी छोटा होता है। इसे कम्पाउंडिंग इफेक्ट कहते हैं।तो यदि आप 2023 तक का कैलकुलेशन करते हैं, तो कुल खोया हुआ जीडीपी करीब 8.5 से 9 लाख करोड़ बैठता है।
यानी ढाई साल का पूरा विकास वाष्पित।
यूँ समझिए हमने ढाई साल कुछ नही किया।
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MSMEकी कहानी और भयावह है।
यह सेक्टर जीडीपी का 31 फीसदी योगदान देता था, 11.1 करोड़ लोग इसमे रोजगार पाते थे। 2016 में इसका वार्षिक क्रेडिट आउटफ्लो 15 लाख करोड़ था, और ग्रोथ रेट 12 फीसदी। इस ग्रोथ रेट को तो आप बुलेट ट्रेन मान सकते हैं।
जो धमाके से उड़ गई। नोटबंदी के बाद क्रेडिट सिकुड़ गया।2017-18 में MSME क्रेडिट ग्रोथ सिर्फ 2.3 फीसदी रही। 2018-19 में 4.1। याने विगत वर्ष का एक चौथाई..
अगर 12 फीसदी की मूल रफ्तार ही बनी रहती, तो 2023 तक एमएसएमई का जीडीपी योगदान 35 फीसदी तक पहुँच जाता, और क्रेडिट 28 लाख करोड़।
लेकिन वास्तविकता यह कि 2023 में योगदान घटकर महज 29 फीसदी रह गया। क्रेडिट 22 लाख करोड़। 6 फीसदी का अंतर जीडीपी में पड़ा।, 6 लाख करोड़ का क्रेडिट गैप बढ़ा।
याने सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले MSME सेक्टर को नोटबन्दी ने 6 साल पीछे धकेल दिया। यह एक सरकार के पूरे कार्यकाल से ज्यादा है।
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और रोजगार?
2016 के 11.1 करोड़ एम्प्लॉयमेंट से 2023 में घटकर 11.0 करोड़ हुआ। जबकि सामान्य ग्रोथ से इस दौर में 3 करोड़ नई नौकरियाँ पैदा होने की आशा थी।
CMIE के अनुसार 2016 में बेरोजगारी दर 6.8 फीसदी थी, और श्रम बल भागीदारी दर 46.2 फीसदी। नोटबंदी के बाद
- 2017 में बेरोजगारी 7.9,
- 2018 में 7.6,
- 2019 में 8.1 तक चली गई।
2023 में भी 8.1 पर अटकी है। अगर पुरानी ट्रेंड पर चलते, तो 2020 तक बेरोजगारी 5.5 फीसदी तक आ जाती। यानी 2.6 फीसदी का अंतर— लगभग 1.3 करोड़ अतिरिक्त बेरोजगार।
याने कुलमिलाकर 4.30 करोड़ रोजगार खत्म। ये बेरोजगार अब रील बनाते और हिन्दू मुस्लिम डिबेट करते दिखते हैं।
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गरीबी की रेखा पर नजर डालें। 2011-12 में टेंडुलकर लाइन के तहत गरीबी 21.9 फीसदी थी। 2016 तक यह 18 फीसदी के करीब पहुँच रही थी—वार्षिक 0.8 फीसदी की गिरावट।