यज्ञोपवीत या जनेऊ में तीन लड़, नौ तार और 96 चौवे ही क्यों?
यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र:-
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
यज्ञोपवीत के महत्व और उपयोग:
धार्मिक प्रतीक: यज्ञोपवीत हिंदू धर्म में धार्मिकता, शुद्धता, और अनुशासन का प्रतीक है। इसे धारण करने से व्यक्ति धार्मिक कर्तव्यों और आध्यात्मिक मार्ग की ओर अग्रसर होता है।
संस्कार: उपनयन संस्कार (यज्ञोपवीत संस्कार) हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण संस्कार है, जिसे आमतौर पर लड़कों के ब्रह्मचारी (विद्यार्थी) अवस्था में प्रवेश के समय किया जाता है। यह संस्कार लड़के को धार्मिक और नैतिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए तैयार करता है।
तीन सूत्र: यज्ञोपवीत के तीन सूत्र होते हैं जो ब्रह्मा, विष्णु, और महेश (शिव) के प्रतीक हैं। ये तीन सूत्र व्यक्ति के तीन ऋणों (देव ऋण, ऋषि ऋण, और पितृ ऋण) का भी प्रतीक होते हैं।
प्रातः और सायं संध्या: यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति के लिए नियमित रूप से संध्या वंदन (प्रातः और सायं संध्या) करना आवश्यक होता है। यह व्यक्ति को धर्म और अनुशासन में बांधता है।
आध्यात्मिक उन्नति: यज्ञोपवीत धारण करने से व्यक्ति का मन और आत्मा शुद्ध होते हैं और उसे आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में प्रेरित करते हैं।
यज्ञोपवीत के तीन लड़, सृष्टि के समस्त पहलुओं में व्याप्त त्रिविध धर्मों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। तैत्तिरीय संहिता 6, 3, 10, 5 के अनुसार तीन लड़ों से तीन ऋणों का बोध होता है।
ब्रह्मचर्य से ऋषिऋण, यज्ञ से देवऋण और प्रजापालन से पितृऋण चुकाया जाता है।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश यज्ञोपवीतधारी द्विज की उपासना से प्रसन्न होते हैं। त्रिगुणात्मक तीन लड़ बल, वीर्य और ओज को बढ़ाने वाले हैं, वेदत्रयी, ऋक, यजु, साम की रक्षा करती हैं।
सत, रज व तम तीन गुणों की सगुणात्मक वृद्धि करते हैं। यह तीनों लोकों के यश की प्रतीक हैं। माता, पिता और आचार्य के प्रति समर्पण, कर्तव्यपालन, कर्तव्यनिष्ठा की बोधक हैं।
सामवेदीय छान्दोग्यसूत्र में लिखा है-ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन लड़ों का सूत्र बनाया विष्णु ने ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों कांडों से तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री से अभिमंत्रित कर उसमें ब्रह्म गांठ लगा दी।
इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रंथियां समेत बनकर तैयार हुआ।
यज्ञोपवीत के नौ सूत्रों में नौ देवता वास करते हैं-
1. ओंकार-ब्रह्म,
2. अग्नि - तेज,
3. अनंत-धैर्य,
4. चंद्र-शीतल प्रकाश,
5. पितृगण-स्नेह,
6. प्रजापति-प्रजापालन,
7. वायु-स्वच्छता
8. सूर्य-प्रताप,
9. सब देवता- समदर्शन।
इन नौ देवताओं के, नौ गुणों को धारण करना भी नौ तार का अभिप्राय है। यज्ञोपवीत धारण करने वाले को देवताओं के नौ गुण-ब्रह्म, परायणता, तेजस्विता, धैर्य, नम्रता, दया, परोपकार, स्वच्छता और शक्ति संपन्नता को निरंतर अपनाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
यज्ञोपवीत के नौ धागे नौ सद्गुणों के प्रतीक भी माने जाते हैं। ये हृदय में प्रेम, वाणी में माधुर्य, व्यवहार में सरलता, नारी मात्र के प्रति पवित्र भावना, कर्म में कला और सौंदर्य की अभिव्यक्ति, सबके प्रति उदारता और सेवा भावना, शिष्टाचार और अनुशासन, स्वाध्याय एवं सत्संग, स्वच्छता, व्यवस्था और निरालस्यता माने गए हैं, जिन्हें अपनाने का निरंतर प्रयत्न करना चाहिए। वेद और गायत्री के अभिमत को स्वीकार करना और यज्ञोपवीत पहनकर ही गायत्री मंत्र का जाप करना।
96 चौवे (चप्पे) लगाने का अभिप्राय है, क्योंकि गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं और वेद 4 हैं।
इस प्रकार चारों वेदों के गायत्री मंत्रों के कुल गुणनफल 96 अक्षर आते हैं।
सामवेदी छान्दोग्य के तिथि 15, वार 7, नक्षत्र 27, तत्त्व 25, वेद 4, गुण 3, काल सूत्र मतानुसार 3, मास 12 इन सबका जोड़ 96 होता है।
ब्रह्म पुरुष के शरीर में सूत्रात्मा प्राण का 96 वस्तु कंधे से कटि पर्यंत यज्ञोपवीत पड़ा हुआ है, ऐसा भाव यज्ञोपवीत धारण करने वाले को मन में रखना चाहिए